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इन्द्रो॒ यज्व॑ने पृण॒ते च॑ शिक्ष॒त्युपेद्द॑दाति॒ न स्वं मु॑षायति। भूयो॑भूयो र॒यिमिद॑स्य व॒र्धय॒न्नभि॑न्ने खि॒ल्ये नि द॑धाति देव॒युम् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indro yajvane pṛṇate ca śikṣaty uped dadāti na svam muṣāyati | bhūyo-bhūyo rayim id asya vardhayann abhinne khilye ni dadhāti devayum ||

पद पाठ

इन्द्रः॑। यज्व॑ने। पृ॒ण॒ते। च॒। शि॒क्ष॒ति॒। उप॑। इत्। द॒दा॒ति॒। न। स्वम्। मु॒षा॒य॒ति॒। भूयः॑ऽभूयः। र॒यिम्। इत्। अ॒स्य॒। व॒र्धय॑न्। अभि॑न्ने। खि॒ल्ये। नि। द॒धा॒ति॒। दे॒व॒ऽयुम् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:28» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) राजा (अस्य) इस संसार के मध्य में (रयिम्) विद्यारूप धन को (इत्) (वर्धयन्) बढ़ाता हुआ (अभिन्ने) इकट्ठे हुए व्यवहार में और (खिल्ये) टुकड़ों में हुए के बीच (च) भी (देवयुम्) विद्वानों की कामना करते हुए विद्वान् को (भूयोभूयः) वारंवार (नि, दधाति) निरन्तर धारण करता है और (स्वम्) अपने ज्ञान को (न) नहीं (मुषायति) चुराता है और (यज्वने) यज्ञ के करनेवाले के लिये (उप, शिक्षति) विद्या देता है और (पृणते) सुखयुक्त करता है (च) और (ददाति) देता है, वह (इत्) ही सबको बढ़ा सकता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - वे ही विद्वान् यथार्थवक्ता हैं, जो निष्कपटता से वार-वार प्रतिदिन विद्याकोश को योग्य के लिये देते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! य इन्द्रोऽस्य संसारस्य मध्ये रयिमिद् वर्धयन्नभिन्ने खिल्ये च देवयुं भूयोभूयो नि दधाति स्वं न मुषायति यज्वन उपशिक्षति पृणते च ददाति स इदेव सर्वान् वर्धयितुं शक्नोति ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) राजा (यज्वने) यज्ञस्य कर्त्रे (पृणते) सुखयते (च) (शिक्षति) विद्यां ददाति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (उप) (इत्) (ददाति) (न) निषेधे (स्वम्) स्वकीयं बोधम् (मुषायति) चोरयति (भूयोभूयः) (रयिम्) विद्याधनम् (इत्) एव (अस्य) संसारस्य मध्ये (वर्धयन्) (अभिन्ने) एकीभूते व्यवहारे (खिल्ये) खण्डेषु भवे (नि) (दधाति) (देवयुम्) देवान् विदुषः कामयमानं विद्वांसम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - त एव विद्वांस आप्ताः सन्ति ये निष्कपटत्वेन पुनः पुनः प्रतिदिनं विद्यानिधिं योग्याय ददति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे निष्कपटीपणाने वारंवार व दररोज योग्य लोकांना विद्या निधी देतात तेच विद्वान असतात. ॥ २ ॥